Wednesday, August 17, 2011


अन्ना और सरकार

आज देश में जिस तरह का माहौल बन रहा है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अन्ना और सरकार दोनों पक्षों ने इस मामले में जिस तरह का अड़ियल रुख अपना लिया है वह किसी भी तरह से देश के हित में नहीं है. यह सही है   देश की जनता भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहती है और सरकार भी कई बार इस मसले पर सख्त बिल की बात कर चुकी है पर अचानक ही दोनों पक्षों की बात बनते बनते बिगड़ गयी और देश को जो कुछ मिल सकता था उसमें बहुत देर हो गयी. यह सही है की अन्ना को अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए पर साथ ही यह भी सही है की जो उन्हें चाहिए वह सरकार अपने दम पर नहीं दे सकती है. इसी क्रम को आगे बढ़ने के लिए देश में पहली बार सरकार ने किसी ड्राफ्ट को बनाने के लिए जनता के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर एक संयुक्त समिति बनायीं थी. यह अपना काम भी ठीक तरह से कर रही थी और कई मामलों पर सहमति भी बन चुकी थी जबकि कई मामलों पर मतभेद भी जारी थे. इस पूरे मसले में नया मोड़ तब सामने आ गया जब सरकार ने योग के नाम पर प्रदर्शन और अनशन कर रहे बाबा रामदेव को बलपूर्वक दिल्ली से बाहर कर दिया
इस तरह के बड़े परिवर्तन अचानक ही नहीं हो जाया करते हैं आज जो स्थिति है उसमें सभी पक्षों को संयम से काम लेना चाहिए. अन्ना की शांतिप्रियता पर किसी को संदेह नहीं है पर जब हजारों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है तो कौन सभी की ज़िम्मेदारी ले सकता है ? सरकार के सामने कानून व्यवस्था की समस्या है तो अन्ना को एक अच्छे लोकपाल की ज़रुरत..... पर दोनों ही बातें देश के लिए ज़रूरी हैं. आज इस बात की अधिक आवश्यकता है की देश को एक मज़बूत लोकपाल मिले पर साथ ही इस तरह के अनावश्यक विवादों से भी बचा जाये क्योंकि अगर देश में किसी भी तरह का किसी का भी नुकसान होता है तो वह हमारा ही  होगा. अब भी समय है की इस तरह के बड़े काम को केवल समय सीमा में न बाँधा जाये यदि सरकार की मंशा अच्छी है तो उसे भी अपनी तरफ से अच्छे संकेत देने चाहिए साथ ही अन्ना को भी यह समझना होगा की लोकतंत्र में यह सारी जटिल प्रक्रिया है और इसका बिना कोई भी सरकार कुछ भी नहीं कर सकती है. इस लोकपाल को मज़बूत बनाने के लिए आम जनता की राय भी लेनी चाहिए जिससे सभी की राय जानी जा सके. 
अब भी समय है की सरकार को इस मामले में पहल करनी ही चाहिए एक बात यह समझ में नहीं आती है की इस मसले पर संप्रग की सरकार कुछ करना चाहती है तो बाकि दल केवल मज़बूत लोकपाल की बातें ही क्यों करते हैं क्यों नहीं वे इस पूरी प्रक्रिया में शामिल होते हैं ? हर छोटी बड़ी बात के लिए संसदीय समिति की मांग करने वाले विपक्ष को क्या लोकपाल इतना आवश्यक नहीं लगता की इसके लिए भी वे कुछ मांग सकें ? अच्छा हो की इस मसले पर किसी भी तरह की हड़बड़ी से बचा जाये और इस पर विचार करने के लिए एक संसदीय समिति भी बनाई जाए जिससे देश के सभी राजनैतिक दल क्या कहते हैं यह भी जनता के सामने आ सके. साथ ही सभी राज्यों की विधान सभाओं में भी इस तरह की समितियां बनाई जाएँ जो पूरी तरह से विचार करके अपनी राय भी संसदीय समिति तक भेजें. टीम अन्ना को भी अब यह समझना चाहिए की वे जिस हक़ के लिए लड़ रहे हैं उसे पाने में अब कोई उन्हें नहीं रोक सकता है पर इस तरह के बड़े निर्णय आसानी से नहीं हुआ करते और जब बात भ्रष्ट राजनेताओं को भी कानून में लाने की हो तो डगर और भी कठिन हो जाती है. अब सरकार को अन्ना के साथ अनावश्यक सख्ती से बचना चाहिए साथ ही अन्ना को भी इस गतिरोध को तोड़ने के लिए कुछ नर्म तेवर दिखाने होंगें.   
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

Monday, August 15, 2011


भ्रष्टाचार कैंसर तो इलाज ?

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर अपने संबोधन में राष्ट्र को संबोधित करते हुए महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने जिस तरह से भ्रष्टाचार को कैंसर कह कर इसे बड़ी समस्या बताया है उससे यही लगता है कि आज सरकार भी इस बात को मान रही है देश की जनता इस बात को लेकर गंभीर हो चुकी है और केवल बातों से ही सब कुछ ठीक नहीं होने वाला है. जिस तरह से पिछले कुछ समय से सरकार पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है उससे यही लगता है कि अब सरकार भले ही आधे में से सही पर कुछ करने के बारे में सोचने लगी है. फिर भी अभी यह सोच उस स्तर तक नहीं बढ़ पाई है जहाँ से यह कहा जा सके कि सरकार ने इस बारे में वास्तव में ठोस करने के बारे में सोचना शुरू कर दिया है. 
देश में जो कुछ भी चल रहा है उसके बारे में ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि कोई कुछ नहीं जनता है फिर भी जो कुछ चल रहा है उसे समझने की ज़रुरत भी नहीं है. एक और स्वतंत्रता दिवस ऐसे ही निकल जायेगा और साथ ही निकल जायेंगीं देश की हसरतें भी ? कौन सोचेगा देश के बारे में ? हे मनमोहन ! कल कुछ ऐसा कह दो लालकिले से जो यह देश सुनना चाहता है.... मोह लो इस देश के हर नागरिक का मन... दिखा दो कि मन मोहने के साथ चक्र सुदर्शन भी आपके हाथ में है... नाश कर दो भ्रष्टाचार के इस रावण का..... सुन तो रहे हो न मोहनी मुस्कान वाले अब मुस्काने से काम नहीं चलने वाला है... चेत जाओ न....अब तो दे दो असली स्वाधीनता इस देश को 

   
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

Thursday, July 14, 2011

मुंबई आख़िर कब तक ?

देश की आर्थिक राजधानी पर एक बार फिर से आतंकी हमले ने यह बात साबित ही कर दी है कि चाहे जो हो जाये पर पाक किसी भी दबाव में आये बिना अपनी हरकतों को चालू रखने पर आमादा है. यह भी सही है कि विकास करता हुआ भारत पाक की आँखों में हमेशा ही खटकता रहता है पर इसका मतलब यह तो नहीं होना चाहिए कि भारत में हम सब अपनी सुरक्षा में केवल उसी समय पूरी चौकसी रखें जब हमारे पर कोई आतंकी हमला हो जाये ? इस तरह के आतंकी हमलों को किसी भी स्थिति में रोका नहीं जा सकता है परन्तु हमारे चौकस रहने से आतंकियों को इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने में अधिक सावधानी और परिश्रम की आवश्यकता पड़ेगी जिससे वे लगातार दबाव में रहकर गलतियाँ भी करेंगें. यह सही है कि २६/११ के बाद से केद्र सरकार ने कुछ प्रतिरोधात्मक कदम उठाये थे उनका इस हमले को रोकने में क्या हाथ रहा यह तो कोई नहीं बता सकता है पर जब भी इस तरह की घटनाएँ होती हैं तो सरकारें अचानक ही दबाव में आ जाया करती हैं. आज पाकिस्तान को कोसने के स्थान पर हमें इस बात पर विचार करना होगा कि आख़िर कैसे हम अपने को और सुरक्षित बना सकते हैं ?
    आतंक से निपटने के लिए देश को एक बहुत सख्त कानून की आवश्यकता है और इसमें किसी भी तरह की राजनीति आख़िर में देश के लिए ही विनाशकारी साबित होने वाली है इसलिए आतंकी घटनाओं की एक समय बद्ध तरीके से वैज्ञानिक जांच करने की दिशा में हमें अब बढ़ना ही होगा क्योंकि जब तक हमारे पास इस तरह की टीम नहीं होगी कि वह पूरी जाँच को सही तरीके से कर सके और एक बेहद कड़े कानून के तहत दोषियों को सजा भी दिलवा सके तब तक देश में इस तरह के आतंकी हमले रोकने की कोई भी कवायद बेकार ही साबित होने वाली है. आतंक निरोधी कानून पर जिस तरह से राजनैतिक दल अपने वोट बैंक को बचाने की कोशिशें करते नज़र आते हैं वह बेहद घटिया है क्योंकि आतंकियों की गोली और बम किसी की जाति और धर्म नहीं पूछते हैं उन्हें तो केवल खून और दहशत से मतलब होता है अब वह चाहे किसी का भी क्यों न हो ? फिर भी आज तक देश में एक कड़ा कानून सर्व सम्मति से नहीं बन सका है हाँ सांसदों के वेतन भत्ते और निधि को बढ़ाने की की हर बार सफल कोशिश अवश्य होती रही है. संसद निधि से हर वर्ष १ करोड़ रु० स्थानीय सुरक्षा के नाम पर आरक्षित कर दिए जाने चाहिए जिससे कुछ वर्षों में धन की जो कमी सुरक्षा में महसूस होती है उसमें कुछ इज़ाफ़ा हो सके. इस तरह के विकास का कोई मतलब नहीं है जब देश के हर विकास और पूरे तंत्र पर आतंक का खतरा मंडरा रहा हो ?
     अब समय आ गया है कि हम भी इस बारे में पूरी तरह से चेत जाएँ क्योंकि इस तरह की घटनाओं को हम नागरिक ही कुछ हद तक कम कर सकते हैं पर आज हमारे पर अपने घरों में ही झाँकने की फुर्सत नहीं है तो हम अपने मोहल्ले के बारे में क्या सोच पायेंगें ? ऐसे किसी भी स्थान पर बम रखने के लिए आतंकियों को कई बार चक्कर लगाने पड़ते हैं और इस पूरी कवायद में हमारी सोती हुई लापरवाह आँखें उन्हें देख ही नहीं पाती हैं. यह भी सही है कि इन सभी में कोई न कोई स्थानीय निवासी भी शामिल होता है पर अगर हम अपने आस पास की गतिविधियों पर कुछ नज़र रखने की आदत बना लें तो हो सकता है कि कई बार कोई संदिग्ध हमारी नज़रों में आ ही जाये ? अब हम नागरिकों को अपने स्तर से अपने मोहल्ले में आने जाने वालों पर ध्यान रखना सीखना होगा और भीड़ भरे बाज़ारों में दुकानदारों को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि वे अपने खर्चों से सड़कों पर नज़र रखने के लिए कुछ व्यवस्था करें जिससे ऐसी किसी घटना के बाद पुलिस को कुछ सुराग भी मिल सकें और आतंकियों को हमले करने में परेशानी होने लगे. अब हर बात के लिए सरकारों का मुंह ताकने के स्थान पर हमें अपनी सुरक्षा के लिए ख़ुद भी कुछ करना ही होगा. 
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...